Zenab rehan

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अठारहवाँ अध्याय





यहाँ पहले श्लोक में आत्मानंद का ही वर्णन है। इसीलिए उसके वास्ते किसी और बात की जरूरत नहीं बताई गई है। केवल अपनी बुद्धि को ही निर्मल और स्वच्छ करने की आवश्यकता कही गई है। वह तो मौजूद ही है, पास ही है। सिर्फ बुद्धि को एकाग्र और समाधिस्थ करने की जरूरत है। बुद्धि का अर्थ मन, चित्त या अंत:करण है। ऐसा होते ही वह आनंद आप ही आप मिलने लगता है। कहा भी है कि 'दिल के आईने में है तस्वीरे यार। जब जरा गरदन झुकाई देख ली'। गरदन झुकाने का मतलब मन की एकग्रता से ही है। 'आत्मबुद्धि प्रसादजम्' में जो आत्म शब्द है वह इन्हीं बातों का सूचक है। यह मन की एकाग्रता और समाधि बहुत ही कष्टसाध्‍य है। इसीलिए उस सुख को शुरू में जहर जैसा कहा है। वह जहर जैसा है के मानी हैं कि उसके लिए जो कुछ करना होता है वह बहुत ही कठिन है।

विषय सुख को राजस कहा है। वह पहले तो बहुत ही अच्छा लगता है और मन को रमाता है। मगर परिणाम उसका बुरा होता है। क्योंकि बाल-बच्चों और सांसारिक पदार्थों में ही जिसे चसका हो गया वह परलोक और कल्याण की बात कुछ भी करी नहीं सकता। उससे समाजहित का भी कोई काम नहीं हो सकता है। मनोरथों की न कभी पूर्त्ति होती है और न इनसे और इनके करते होने वाले झंझटों से छुटकारा ही मिलता है। फिर और बात हो तो कैसे? इसीलिए सौभरि ऋषि के बारे में कहा जाता है कि उनने समाधि को त्यागकर पूरे पचास विवाह किए! फिर महल बना के सांसारिक सुख का भोग शुरू किया! बच्चे, पोते, परपोते आदि हो गए, भारी परिवार बढ़ गया और 'गीता फैल गई'! अंत में ऊब के उनने सबको लात मारी और कहा कि लाखों वर्षों में भी मनोरथों की, पूर्ति हो नहीं सकती, आदि-आदि - 'मनोरथानां न समाप्तिरस्ति वर्षायुतेनापि तथाब्दलक्षै:। पूर्णेषु पूर्वेषु पुनर्नवानामुत्पत्तय: संति मनोरथानाम्। पद्भयां गता यौवनिनश्च याता दारैश्च संयोगमिता: प्रसूता:। दृष्ट्वा सुतं तत्तनयप्रसूतिं द्रुष्टुं पुनर्वांछति मेऽन्तरात्मा। आमृत्युतो नैव मनोरथानामंतोऽस्ति विज्ञातमिदं मयाऽद्य। मनोरथासक्तिपरस्य चित्ते न जायते वै परमात्मसंग:'। यही आशय इस श्लोक का है; न कि वेश्यागामियों या दूसरे कुकर्मियों से यहाँ मतलब है। उनका वर्णन तो तामस सुख में ही आया है। क्योंकि उस सुख का काम ही है आत्मा को भटकाना। प्रमाद से ही वह पैदा भी होता है। कुकर्म तो प्रमाद और भटकना ही है न? दिन-रात पड़े-पड़े ऊँघते रहें और आलस में दिन गुजारें यही तो तामसी वृत्ति है। ऐसे लोगों को इसी में मजा भी मिलता है। यहाँ निद्रा का अर्थ है ज्यादा निद्रा। क्योंकि साधारण नींद में तो सभी को मजा मिलता है। गाढ़ी नींद के बाद हरेक आदमी कहता भी है कि खूब आराम से सोए, ऐसा सोए कि कुछ मालूम ही न पड़ा - 'सुखमहमस्वाप्सन्न किंचिदवेदिषम्'।

इस प्रकार त्रिगुण रूप में सुख आदि का वर्णन कर दिया। इसका प्रयोजन हम पहले ही कह चुके हैं। शायद कोई कहे कि केवल सात्त्विक कर्म, ज्ञान, कर्त्ता आदि के ही वर्णन से काम चल सकता था और लोग सहज हो के आत्मा को कर्म से अलग मान सकते थे। फिर राजस, तामसों के वर्णन की क्या जरूरत थी? बात तो सही है। मगर जब सात्त्विक का नाम लेंगे तो खामख्वाह फौरन आकांक्षा होगी कि राजस, तामस क्या हैं। जरा उन्हें भी तो जानें। और अगर यह इच्छा पूरी न हो तो निरूपण बेकार जाएगा। बातें भी अच्छी तरह समझ में आ न सकेंगी। मन दुविधे में जो पड़ गया और समझना ठहरा उसे ही। एक बात और भी है। यदि राजस, तामस का पूरा ब्योरा और वर्णन न हो तो लोक चूक सकते हैं। वे दरअसल राजस या तामस को ही भूल से सात्त्विक मान बैठ सकते हैं। इसीलिए साफ-साफ तीनों को एक ही साथ रख दिया है; ताकि आईने की तरह देख लें और धोखे से बचें।

इस प्रकार सब कुछ कह चुकने के बाद इसका उपसंहार करते हुए, जैसा कि कहा है, अगला श्लोक बताए देता है कि यह तो आश्चर्य की कोई बात है नहीं। जमीन-आसमान कहीं भी जो चीज होगी उसमें तीनों गुण होंगे ही। इसीलिए केवल सजग होने की जरूरत है। नहीं तो इनके सिवाय औरों से भी धोखा हो सकता है।

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुन:।

सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभि: स्यात्त्रिभिर्गुणै:॥ 40 ॥

भूमंडल में या आकाश और स्वर्ग के निवासी देवताओं तक में भी ऐसा एक भी पदार्थ नहीं है जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो। 40।

पृथिवी के किसी पदार्थ का नाम न लेकर स्वर्ग के देवताओं का नाम लेने का प्रयोजन इतना ही है कि पार्थिव पदार्थों को तो सभी लोग त्रिगुणात्मक मानते-जानते हैं। अन्य स्वर्गीय पदार्थों को भी ऐसा शायद समझ सकते हैं। स्वर्ग में देवताओं के अलावे और भी पदार्थ यक्षादि होते ही हैं। साथ ही, दिव तो आकाश को भी कहते हैं और उसमें प्रेतादि भी रहते ही हैं। वे भी त्रिगुणात्मक हो सकते हैं। किंतु देवताओं को दिव्य या अलौकिक खयाल करके कोई शायद त्रिगुण न माने, इसीलिए उनको खास तौर से कह दिया। वजह भी दे दिया कि सभी तो प्रकृति से ही बने हैं। इसीलिए किसी पर भी भरोसा न करके अपनी बुद्धि की निर्मलता का ही सहारा लेना होगा।

इसी तरह सत्त्व का अर्थ पदार्थ है, न कि सत्त्व गुणमात्र। यह ठीक है कि सत्त्वगुण कहीं भी विशुद्ध नहीं है। उसमें भी रज और तम का मेल कभी कम, कभी ज्यादा रहता ही है। इसी से सत्त्व का अर्थ पदार्थ हो भी गया। क्योंकि किसी में कम और किसी में अधिक सत्त्व तो रहता यही है। आशय यही है कि खबरदार, विशुद्ध सत्त्व कहीं नहीं है। इसलिए सतर्क रहना ही होगा। नहीं तो बुद्धि की पूरी सफाई के बाद भी उस पर रज, तम का धावा हो सकता है।

अब प्रश्न पैदा होता है कि इसका उपाय क्या है कि सात्त्विक कर्म, ज्ञान, बुद्धि, सुख आदि ही रहें और राजस, तामस, रहने न पाएँ - लोग इन दोनों के फेर में न पड़ के सात्त्विक के ही पीछे लगे रहें? बिना उपाय जाने काम चलेगा भी कैसे? साथ ही, जो उपाय हो भी वह किस तरह काम में लाया जाए, जिसमें कभी गड़बड़ी की गुंजाइश न रहे, यह भी प्रश्न होना स्वाभाविक है। इसीलिए आगे के श्लोकों में इन्हीं दोनों का उत्तर देते हुए समूचा अध्‍याय पूरा करके गीता का भी उपसंहार कर दिया गया है। इसमें भी पहले के चार (41-44) श्लोकों में उपायों को बता के शेष श्लोकों में उन्हीं का प्रयोग बताया गया है। यह ठीक ही है कि दवा का प्रयोग निरंतर तो होता है नहीं। बीच-बीच में विराम तो करते ही हैं। कभी-कभी तो लंबी मुद्दत तक दवा छोड़ के देखते हैं कि मर्ज गया या नहीं। उस समय दवा का छोड़ देना ही दवा का काम करता है। नहीं तो आवश्यकता से अधिक दवा का प्रयोग कर देने का खतरा आ सकता है। ठीक यही बात कर्मों की है। वर्णों के कर्म तो उपाय के रूप में ही कहे गए हैं। मगर उन्हें छोड़ देने की भी जरूरत दवा की ही तरह हो जाती है। नहीं तो इनका जरूरत से ज्यादा प्रयोग हो जाने से ही हानि हो सकती और काम बिगड़ सकता है। इस प्रकार कर्मों के स्वरूपत: त्याग की भी बात इसी सिलसिले में आ जाती है, आ गई है और वह उचित ही है। जलचिकित्साशास्त्र का तो यह एक नियम ही है कि बीच-बीच में जरूर ही जलचिकित्सा बंद कर दी जानी चाहिए। नहीं तो वह मनुष्य का एक तरह का स्वभाव बन जाती है। फिर तो उसका कुछ भी असर नहीं होता है।

हाँ, तो आगे के चार श्लोकों में जो वर्णों के धर्म कहे गए हैं वह त्रिगुणों से बने विभिन्न स्वभावों के अनुसार ही माने गए हैं। बार-बार उन श्लोकों में यह बात कही गई है। यहाँ तक कि हरेक वर्ण के बारे में अलग-अलग उसका जिक्र किया है। पहले श्लोक में चारों के बारे में एक साथ भी कह दिया है कि ये कर्म स्वाभाविक होते हैं, प्रकृति के अनुसार ही होते हैं। हमने इस बात पर बहुत ज्यादा प्रकाश पहले ही डाल दिया है। इस प्रसंग में इनके कहे जाने का आशय यही है कि यदि गुण-तारतम्य के अनुसार बनी हुई मानव प्रकृति की जाँच करके उसी के अनुसार उसके कर्म निर्धारित किए जाएँ, तो राजस-तामस का झमेला खड़ा होगा ही नहीं। क्योंकि सात्त्विक प्रकृतिवाले तो उनसे यों ही बच जाएँगे। उन्हें दूसरे कर्म मिलेंगे ही नहीं। इसीलिए राजस-तामस सुखों का भी मौका ही उन्हें न लगेगा। उनकी बुद्धि और धृति भी वैसी ही होगी। यदि कुछ कसर भी रहेगी तो ये कर्म ही उसे ठीक कर देंगे।

रह गए राजस तथा तामस प्रकृति वाले। जब इन्हें भी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करने की विवशता होगी तो वे उसमें विशेषज्ञ और पारंगत हो जाएँगे। नतीजा यह होगा कि उनकी हकीकत और असलियत समझने लगेंगे। फिर तो धीरे-धीरे अपने भीतर ऐसी भावना और ऐसे संस्कार पैदा करेंगे कि स्वयमेव उनकी प्रकृति बदलेगी। फलत: इस जन्म में नहीं, तो आगे सात्त्विक मार्ग पर आई जाएँगे। विशेषज्ञता का तो मतलब ही है उसका रस-रेशा पहचान लेना। उसका सिर्फ यही मतलब नहीं होता कि उस पर अमल अच्छी तरह किया जाए। किंतु उसकी कमजोरियाँ, बुराइयाँ और हानियाँ भी मालूम हो जाया करती हैं, आँखों के सामने नाचने लगती हैं और यही चीज आगे का रास्ता साफ करती है। वर्णाश्रमों के धर्मों की इस तरह सख्ती के साथ पाबंदी की जो बात पहले जमाने में थी उसका यही मतलब था। हम यह पहले ही अच्छी तरह सिद्ध कर चुके हैं। आज जो श्रम-विभाजन (division of labour) का सिद्धांत बहुत व्यापक रूप में काम में लाया जाकर पराकाष्ठा को पहुँचा दिया गया है, वह कोई नई बात नहीं है। वर्णाश्रम धर्मों के विभाग के मूल में यही सिद्धांत काम करता है। इससे ही समाज की प्रगति पहले के ऋषि-मुनि मानते थे। आश्चर्य है कि आधुनिक विज्ञान भी यही बात रूपांतर में मानता है। डॉ. ऐडम स्मिथ ने अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जो एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में लिखी है और जिसका नाम है 'राष्ट्रों की संपत्ति' (The wealth of Nations by Dr. Adam Smith), उसके शुरू में, पहले ही परिच्छेद में, वह यही बात यों लिखते हैं -

"In the progress of society philosophy or speculation becomes, like every other employment, the principal or sole trade and occupation of a particular class of citizens. Like every other employment, too it is subdivided in to a great number of different branches each of which affords occupation to a peculiar tribe of class of philosophers; and this subdivision or employment in philosophy as well as in every other business, improves dexterity, and saves time. Each individual becomes more expert in his own peculiar branch, more work is done upon the whole, and the quantity of science is considrably increased by it."

इसका आशय यह है, 'समाज की प्रगति के सिलसिले में हरेक दूसरे कामों की ही तरह दर्शन या मनन-चिंतन भी नागरिकों के एक खास वर्ग का मुख्य या सोलहों आना काम और पेशा बन जाता है। फिर दूसरे कामों की ही तरह यह भी अनेक विलक्षण विभागों में बँट जाता है और हरेक विभाग एक विलक्षण वर्ग या जाति के दार्शनिकों और दिमागदारों के लिए काम दे देता है। दर्शन और चिंतन का यह विभाग हरेक दूसरे पेशों के विभाग की ही तरह कुशलता एवं विशेषज्ञता की प्रगति करता है और समय भी बचाता है। इस तरह हरेक व्यक्ति अपने खास विभाग या उसकी शाखा में अधिक कुशल हो जाता है, सब मिला के इस तरह काम भी ज्यादा होता है और विज्ञान के प्रसार में प्रगति ज्यादा हो जाती है।'

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:॥ 41 ॥

हे परंतप, स्वभाव को बनाने वाले तीनों गुणों के (तारतम्य के) फलस्वरूप ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों के कर्म बिलकुल ही बँटे हुए हैं। 41।

शमो दमस्तप: शौचं क्षांतिरार्जवमेव च।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥ 42 ॥

शम, दम, तप, पवित्रता, क्षमा, नम्रता या सिधाई, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता, (ये) ब्राह्मणों के स्वाभाविक कर्म हैं। 42।

आस्तिकता का अर्थ श्रद्धा है।

शौर्यं तेजो धृ तिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।

दानमीश्वरभावश्च क्षा त्रं कर्म स्वभावजम्॥ 43 ॥

शूरता, दब्बूपन का न होना, धैर्य (युद्ध शासनादि में) कुशलता, युद्ध से न भागना, दान और शासन की योग्यता, (ये) क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म हैं। 43।

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥ 44 ॥

खेती, पशुपालन (और) व्यापार (ये) वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं। शूद्रों का भी स्वाभाविक कर्म सेवा-रूप ही है। 44।

यहाँ ब्राह्मणों और क्षत्रियों के स्वतंत्र रूप में विस्तृत कर्मों का जुदा-जुदा वर्णन और शूद्रों तथा वैश्यों के कर्मों का एक ही श्लोक में संक्षेप में ही वर्णन यह सूचित करता है कि उस समय वैश्य और शूद्र का दर्जा प्राय: समकक्ष, परतंत्र और छोटा माने जाने लगा था। मगर ब्राह्मण तथा क्षत्रिय प्राय: समकक्ष होने के साथ ही ऊँचे एवं स्वतंत्र माने जाते थे। शूद्र के काम का तो खास नाम भी नहीं दिया है किंतु 'सेवा-रूप' कह दिया है। इससे खयाल होता है कि जरूरत होने पर उससे हर तरह का काम करवा के उस काम को सेवा का रूप दे दिया जाता था। इससे यह भी स्पष्ट है कि समाज के लिए वह फिर भी बहुत ही उपयोगी और जरूरी था। आखिर सेवा के बिना समाज टिकेगा भी कैसे? हमने इस पर पूरा प्रकाश पहले ही डाला है। इस श्लोक में 'शूद्रस्यापि' में शूद्र के साथ 'भी' के अर्थ में 'अपि' आया है। उससे यह भी साफ झलकता है कि उस समय सेवा धर्म शेष तीन वर्णों का भी था और आज उसे जितना बुरा मानते हैं, पहले यह बात न थी। इसी के साथ यह भी सिद्ध हो जाता है कि शूद्रों का कोई अपना खास पेशा या काम न था। जरूरत होने पर वह तीनों वर्णों का काम करते रहते थे। हमने इस पहलू पर भी पहले ही ज्यादा प्रकाश डाला है। शेष तीन के साथ 'अपि' न दे के केवल शूद्र के साथ ही देने का दूसरा आशय हो नहीं सकता। ऐसी दशा में शूद्रों को छोटे या नीच मानने का एक ही कारण हो सकता है और वह यह कि उनकी स्वतंत्र हस्ती न थी, जैसी कि शेष तीन की थी। क्योंकि उनका कोई निजी पेशा न था। और जान पड़ता है, उस समय निजी पेशे का होना जरूरी एवं प्रतिष्ठा का चिह्न माना जाता था। इसीलिए शूद्र छोटे समझे गए। वैश्यों के भी छोटे माने जाने की प्रवृत्ति शायद इसीलिए हुई कि खेती, व्यापार या पशुपालन की उस समय कोई खास जरूरत न थी। या तो इनके द्वारा होने वाला समाज का काम आसानी से चला जा रहा था और खेती, पशुओं या व्यापार की प्रचुरता थी; या यह कि अभी उस ओर समाज का विशेष ध्‍यान न गया था। फलत: ये बीज रूप में ही थे। भरसक यह दूसरी ही बात थी। मगर इस पर अधिक विचार यहाँ हो नहीं सकता।


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